हिमाचल प्रदेश में चुनावी आचार संहिता के लागू होते ही महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत चल रहे कामों का ठहराव आ गया है। यह निर्णय ग्रामीण आबादी, विशेषकर दिहाड़ी मजदूरों के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर सामने आया है, जो अपनी रोजी-रोटी के लिए मनरेगा पर निर्भर करते हैं।
इस संदर्भ में एक ग्रामीण मजदूर ने बताया, “चुनाव आयोग के इस निर्णय ने हमारे रोजगार की गारंटी को भूख की गारंटी में बदल दिया है। आचार संहिता का यह मतलब नहीं होना चाहिए कि गरीब लोगों को बिना काम के भूखे रहना पड़े।”
मनरेगा, जो कि ग्रामीण भारत में रोजगार की गारंटी प्रदान करने का एक मुख्य स्रोत है, अब आचार संहिता के कारण गतिरोध में है। यह अधिनियम ग्रामीण परिवारों को प्रति वर्ष 100 दिनों के रोजगार की गारंटी देता है, जिससे वे अपने जीवनयापन के लिए आवश्यक आय अर्जित कर सकें।
चुनाव आयोग के इस निर्णय की आलोचना करते हुए, एक स्थानीय समाजसेवी ने कहा, “यह निर्णय न केवल ग्रामीण आबादी के रोजगार के अवसरों को सीमित करता है, बल्कि यह भी संकेत देता है कि नीति निर्माता गरीबी और भुखमरी की गंभीरता को समझने में विफल रहे हैं।”
इस विषय पर चुनाव आयोग और सरकार की ओर से अभी तक कोई स्पष्टीकरण या प्रतिक्रिया प्राप्त नहीं हुई है। यह अज्ञात है कि आचार संहिता के दौरान ग्रामीण आबादी की आजीविका को सुनिश्चित करने के लिए क्या कदम उठाए जाएंगे।
इस बीच, समाज के विभिन्न वर्गों से आवाजें उठ रही हैं कि चुनावी आचार संहिता को लागू करने की प्रक्रिया में गरीबों के हितों की रक्षा की जानी चाहिए और उन्हें रोजगार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।
अंत में, हिमाचल प्रदेश में ग्रामीण आबादी के सामने खड़ी इस चुनौती का समाधान ढूंढने के लिए एक संवेदनशील और व्यावहारिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। सरकार और चुनाव आयोग को इस विषय पर तत्काल ध्यान देने और ग्रामीण जनता के लिए उपयुक्त समाधान प्रदान करने की उम्मीद है।