नई दिल्ली: 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था गंभीर संकट से जूझ रही थी। विदेशी मुद्रा भंडार सिर्फ ₹2,500 करोड़ रह गया था, जो केवल दो सप्ताह के आयात के लिए पर्याप्त था। महंगाई दर दहाई अंकों में पहुंच चुकी थी, और वैश्विक वित्तीय संस्थान भारत को ऋण देने से हिचक रहे थे। इस विकट स्थिति में, प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने डॉ. मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री के रूप में चुना। डॉ. सिंह ने नई आर्थिक नीति के तहत ऐतिहासिक सुधारों की शुरुआत की, जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था को स्थिरता और नई दिशा प्रदान की।
आर्थिक सुधारों की पृष्ठभूमि
1980 के दशक के अंत तक, भारत एक बंद और नियंत्रणात्मक आर्थिक प्रणाली के तहत काम कर रहा था। सरकारी नियंत्रण, लाइसेंस राज, और आयात-निर्यात पर कठोर प्रतिबंधों के कारण आर्थिक विकास दर धीमी थी। भुगतान संतुलन संकट बढ़ रहा था, और भारत डिफॉल्ट के कगार पर था। इस स्थिति से निपटने के लिए, नरसिम्हा राव सरकार ने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (LPG) की नीति अपनाई। डॉ. मनमोहन सिंह ने इसे कार्यान्वित करने में अग्रणी भूमिका निभाई।
प्रमुख आर्थिक सुधार
1. लाइसेंस राज का अंत
24 जुलाई 1991 को पेश किए गए बजट में, औद्योगिक नीति में बड़ा बदलाव किया गया।
- लाइसेंस राज, जो दशकों से भारतीय उद्योगों पर भारी था, अधिकांश उद्योगों से हटा दिया गया।
- अब केवल 18 उद्योगों को लाइसेंस की आवश्यकता थी, जिनमें रक्षा, परमाणु ऊर्जा और खतरनाक रसायन शामिल थे।
- इससे उद्यमियों को अपने व्यवसाय के संचालन में अधिक स्वतंत्रता मिली।
इस कदम ने उद्योगपतियों को नौकरशाही की जटिलता से बचाया और निजी क्षेत्र को बढ़ावा दिया।
2. विदेशी निवेश को प्रोत्साहन
विदेशी पूंजी और तकनीकी ज्ञान को आकर्षित करने के लिए 34 क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) की अनुमति दी गई।
- विदेशी कंपनियों को भारत में 51% तक हिस्सेदारी रखने की अनुमति दी गई।
- इस नीति ने भारत के उद्योगों को वैश्विक प्रतिस्पर्धा का सामना करने के लिए तैयार किया।
- विदेशी निवेश में वृद्धि से बुनियादी ढांचे, तकनीकी विकास और रोजगार सृजन को बढ़ावा मिला।
3. रुपये का अवमूल्यन
विदेशी मुद्रा संकट को दूर करने के लिए, रुपये का अवमूल्यन एक महत्वपूर्ण कदम था।
- रुपये की कीमत को दो चरणों में लगभग 18-19% तक कम किया गया।
- इससे भारतीय उत्पादों की वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धात्मकता बढ़ी और निर्यात को प्रोत्साहन मिला।
- इससे विदेशी मुद्रा भंडार में सुधार हुआ और आयात को नियंत्रित करने में मदद मिली।
4. नियामक संस्थाओं की स्थापना
पूंजी बाजार में पारदर्शिता और निवेशकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) की स्थापना की गई।
- SEBI ने धोखाधड़ी रोकने और निवेशकों के विश्वास को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई।
- इससे भारतीय कंपनियों के लिए पूंजी जुटाना आसान हुआ, और शेयर बाजार अधिक संगठित बना।
5. वित्तीय क्षेत्र में सुधार
आरबीआई गवर्नर एम. नरसिम्हन की अध्यक्षता में गठित एक समिति ने भारतीय बैंकिंग और वित्तीय प्रणाली में सुधार की सिफारिशें कीं।
- निजी बैंकों को अनुमति दी गई और सरकारी बैंकों को अधिक स्वायत्तता दी गई।
- गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (NPAs) को नियंत्रित करने के लिए सख्त नियम बनाए गए।
- वित्तीय क्षेत्र अधिक कुशल और प्रतिस्पर्धात्मक बना।
6. राजकोषीय समेकन
बजट घाटे को नियंत्रित करने के लिए सरकारी खर्चों में कटौती की गई।
- अनुत्पादक सब्सिडियों और गैर-जरूरी योजनाओं को समाप्त किया गया।
- राजस्व बढ़ाने के लिए कर प्रणाली को सरल बनाया गया।
इन कदमों से वित्तीय स्थिरता प्राप्त हुई और सरकार के राजस्व में सुधार हुआ।
बजट में तत्काल कदम और महंगाई पर नियंत्रण
डॉ. सिंह ने अपने 1991 के बजट भाषण में महंगाई की गंभीर स्थिति पर प्रकाश डाला।
- उन्होंने कहा, “महंगाई ने गरीब और मध्यम वर्ग के जीवन को कठिन बना दिया है। आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में भारी वृद्धि हुई है।”
- उन्होंने महंगाई को नियंत्रित करने और आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने के उपायों का प्रस्ताव रखा।
सुधारों का प्रभाव
1. औद्योगिक और आर्थिक विकास
- लाइसेंस राज समाप्त होने से उद्योगों में निवेश बढ़ा और उत्पादन में वृद्धि हुई।
- भारत में सेवा क्षेत्र का तेजी से विकास हुआ, और आईटी उद्योग ने वैश्विक पहचान बनाई।
2. विदेशी व्यापार में वृद्धि
- निर्यात में वृद्धि हुई और भारत का व्यापार घाटा कम हुआ।
- विदेशी निवेश के कारण भारतीय बाजार में वैश्विक कंपनियों की भागीदारी बढ़ी।
3. गरीबी में कमी
- आर्थिक विकास के कारण रोजगार सृजन में वृद्धि हुई।
- गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या में धीरे-धीरे कमी आई।
4. वैश्विक पहचान
- भारत ने वैश्विक आर्थिक मंच पर अपनी स्थिति मजबूत की।
- 1991 के सुधारों के बाद, भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हो गया।
चुनौतियां और आलोचनाएं
इन सुधारों का स्वागत हर किसी ने नहीं किया।
- “बॉम्बे क्लब” जैसे उद्योगपतियों के समूह ने विदेशी प्रतिस्पर्धा से सुरक्षा की मांग की।
- कुछ आलोचकों का मानना था कि ये सुधार केवल अमीरों को फायदा पहुंचाएंगे।
- ग्रामीण क्षेत्रों और कृषि पर अपेक्षाकृत कम ध्यान देने की भी आलोचना हुई।
1991 के आर्थिक सुधार भारतीय इतिहास में मील का पत्थर साबित हुए। डॉ. मनमोहन सिंह और पी.वी. नरसिम्हा राव के नेतृत्व में लागू की गई नई आर्थिक नीति ने न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को संकट से उबारा, बल्कि इसे वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार किया। इन सुधारों ने भारत को विश्व आर्थिक मानचित्र पर स्थापित किया और इसे दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में स्थान दिलाया।