बहू तो माता-पिता का सहारा बन जाएगी, बहू का सहारा कौन बनेगा: शहीद कैप्टन अंशुमान परिवार विवाद

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शहीद कैप्टन अंशुमान सिंह को 5 जुलाई को राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा मरणोपरांत कीर्ति चक्र से सम्मानित किया गया। इस सम्मान समारोह में सेना और अन्य सुरक्षाबलों के 10 जवानों को उनके शौर्य के लिए कीर्ति चक्र से सम्मानित किया गया, जिनमें से 7 जवानों को मरणोपरांत यह सम्मान मिला। कैप्टन अंशुमान की पत्नी स्मृति और मां मंजू सिंह ने यह सम्मान ग्रहण किया।

अभी इस सम्मान को प्राप्त हुए 7 दिन भी नहीं गुजरे थे कि शहीद के घर में विवाद खड़ा हो गया। शहीद के पिता रवि प्रताप सिंह ने आरोप लगाया, “बहू कीर्ति चक्र लेकर यहां से चली गई है और अपना एड्रेस भी चेंज करवा लिया है। हमारे पास कीर्ति चक्र की कोई रिसीविंग भी नहीं है, उसे भी बहू ले गई।”

शहीद की मां मंजू सिंह का कहना है, “बहुएं सम्मान और मुआवजा लेकर भाग जाती हैं, परिवार को केवल दुख मिलता है। सेना में निकटतम परिजन (एनओके) का जो निर्धारित मापदंड है, वह ठीक नहीं है। परिभाषा में अविवाहित के लिए माता-पिता होते हैं और विवाहित के लिए जीवनसाथी। शहीद को दी जाने वाली आर्थिक मदद निकटतम परिजन को ही दी जाती है।”

शहीद के पिता ने बताया कि बेटे की पांच महीने की शादी थी और कोई बच्चा नहीं है। दीवार पर लगी तस्वीर की ओर इशारा करते हुए बोले, “आज हमारे पास बस यही बचा है।”

वहीं, कुछ लोग कैप्टन अंशुमान की बहू का समर्थन भी कर रहे हैं। उनका कहना है कि पति की शहादत के बाद महिला के लिए जीवन अत्यंत कठिन हो जाता है। पांच महीने के अंदर ही उसका पूरा संसार उजड़ गया। ऐसे में उसका मायके में रहना स्वाभाविक है। एक स्थानीय निवासी का कहना है, “वह पूरी उम्र किसके सहारे जीएगी? बहू तो माता-पिता का सहारा बन जाएगी, लेकिन वृद्धावस्था में बिना बच्चों की बहू का सहारा कौन बनेगा?”

इस मुद्दे पर लोगों की अलग-अलग राय है। कुछ लोग शहीद की बहू को गलत ठहरा रहे हैं, जबकि कुछ उनकी स्थिति को समझने का प्रयास कर रहे हैं। एक समाजशास्त्री का कहना है, “हम जैसे आम इंसान माता-पिता और बहू के दुखों का अंदाज नहीं लगा सकते, लेकिन किसी को अच्छा और बुरा कहकर उनकी स्थिति को नजरअंदाज करना सही नहीं है।”

समाज में यह बहस छिड़ी हुई है कि क्या छोटी सी उम्र में विधवा होने के बाद महिला को जीवन जीने का हक नहीं देना अन्याय होगा। एक स्थानीय समाजसेवी का कहना है, “यह मुद्दा मीडिया में लाने की जरूरत नहीं थी। परिवार के दुख और विवाद को सार्वजनिक करना सही नहीं है। हमें समझना होगा कि सभी के पास अपने-अपने कारण और परिस्थितियां होती हैं।”

इस विवाद ने समाज में एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है। क्या शहीद के परिवार को मिला सम्मान और मुआवजा विवाद का कारण बनना चाहिए? क्या महिला के पास अपने जीवन के निर्णय लेने का हक नहीं है? इन सवालों का उत्तर समाज को मिलकर खोजना होगा।