हिमाचल प्रदेश की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और धार्मिक आस्थाओं का प्रतीक भूंडा महायज्ञ एक प्राचीन परंपरा है, जो साहस, समर्पण और सामाजिक एकता का प्रतीक है। यह आयोजन विशेष रूप से शिमला जिले के रोहड़ू क्षेत्र में स्थित स्पैल वैली में, देवता बकरालू जी महाराज के मंदिर में होता है। भूंडा महायज्ञ का आयोजन हर 40-50 वर्षों में होता है, जो इसे और भी विशिष्ट बनाता है।
भूंडा महायज्ञ का इतिहास और महत्व
भूंडा महायज्ञ का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों और लोक कथाओं में मिलता है। इसे “नर्मेक यज्ञ” के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है कि इस यज्ञ की परंपरा भगवान परशुराम द्वारा शुरू की गई थी। पुराने समय में इस यज्ञ में नरबलि दी जाती थी, लेकिन समय के साथ इसके स्वरूप में बदलाव आया। अब यह आयोजन देवताओं की पूजा, विशेष रस्मों, और सामाजिक-धार्मिक अनुष्ठानों के लिए जाना जाता है।
भूंडा महायज्ञ के आयोजन का मुख्य उद्देश्य देवताओं को प्रसन्न करना और प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा प्राप्त करना है। इसे “मृत्यु पर विजय” का प्रतीक भी माना जाता है।
आयोजन की प्रक्रिया
भूंडा महायज्ञ का आयोजन कई महीनों की तैयारी और परिश्रम का परिणाम होता है। इसकी प्रमुख विशेषता बेड़े की रस्म है, जो इस आयोजन का मुख्य आकर्षण होती है।
1. मूंजी रस्सी का निर्माण
मूंजी रस्सी विशेष प्रकार की घास से बनाई जाती है, जिसे माता सीता के केश से जोड़ा जाता है। यह रस्सी खाई के दोनों सिरों पर बांधी जाती है। रस्सी को मजबूत और टिकाऊ बनाने के लिए इसे तीन महीने तक तैयार किया जाता है। इसे रातभर पानी में भिगोकर रखा जाता है ताकि इसकी मजबूती बनी रहे।
2. बेड़े की रस्म
बेड़े की रस्म को निभाने वाला व्यक्ति, जिसे “बेड़ा” कहा जाता है, रस्सी के सहारे खाई को पार करता है। यह रस्म अत्यंत साहसिक और जोखिमपूर्ण होती है। इस साल 70 वर्षीय सूरत राम ने नौवीं बार इस रस्म को सफलतापूर्वक निभाया।
सूरत राम ने 40 साल पहले 1985 में पहली बार इस रस्म को निभाया था। इस बार रस्सी टूटने के कारण दूरी को 200 मीटर तक सीमित कर दिया गया, लेकिन रस्म को सफलतापूर्वक पूरा किया गया।
3. देवताओं की उपस्थिति
महायज्ञ में स्थानीय और मेहमान देवताओं की उपस्थिति होती है। इस वर्ष देवता बौंद्रा, देवता मोहरिश, और देवता महेश्वर सहित अन्य देवताओं ने भाग लिया। देवताओं के रथों का आगमन, ढोल-नगाड़ों की गूंज, और भक्तों की जयकारों ने आयोजन को भव्यता प्रदान की।
आधुनिक युग में भूंडा महायज्ञ
भूंडा महायज्ञ अब केवल धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह हिमाचल प्रदेश की सांस्कृतिक पहचान भी बन चुका है। इस साल लगभग 1.50 लाख श्रद्धालुओं ने महायज्ञ में भाग लिया।
रस्म के दौरान चुनौतियां
- रस्सी टूटने की वजह से कुछ व्यवधान हुआ। इसे शुभ संकेत नहीं माना जाता, लेकिन आयोजन समिति ने इसे सफलतापूर्वक संभाला।
- रस्सी को नाले के दोनों किनारों पर बांधने में 300 लोगों ने कंधों पर उठाकर इसे आयोजन स्थल तक पहुंचाया।
सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व
भूंडा महायज्ञ न केवल धार्मिक आस्था को बल प्रदान करता है, बल्कि यह सामाजिक एकता और सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करने का भी माध्यम है।
- इसमें 9 गांवों के लोग सक्रिय रूप से भाग लेते हैं, जिनमें दलगांव, ब्रेटली, खशकंडी, कुटाड़ा, बुठाड़ा, गांवना, खोडसू, करालश और भमनोली शामिल हैं।
- ढोल-नगाड़ों, पारंपरिक नृत्य (नाटी) और भजन-कीर्तन ने आयोजन को एक उत्सवमयी माहौल प्रदान किया।
भूंडा महायज्ञ का धार्मिक दृष्टिकोण
यह महायज्ञ प्राकृतिक शक्तियों और देवताओं को संतुष्ट करने के लिए किया जाता है। मान्यता है कि इससे क्षेत्र में सुख-समृद्धि और प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा मिलती है।
मूंजी रस्सी का महत्व
मूंजी रस्सी को पवित्र माना जाता है। इसे माता सीता के केशों से जोड़ने की मान्यता है, और इसका निर्माण प्रक्रिया अत्यंत जटिल और समय-साध्य होती है।
भूंडा महायज्ञ का भविष्य
भूंडा महायज्ञ का आयोजन हर 40-50 वर्षों के अंतराल पर होता है। यह आयोजन हिमाचल प्रदेश की सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने और अगली पीढ़ी को इसके महत्व को समझाने का एक महत्वपूर्ण माध्यम है।